Tuesday, December 7, 2021

इफ़्फ़ी यात्रा 2021 गोआ

इफ़्फ़ी यात्रा गोआ 2021

गोआ से हरीश शर्मा


और देखते सुनते 8 दिन का सफर खत्म हुआ इन आठ दिनों में बहुत कुछ नया देखने सीखने को मिला। सबसे विशेष रहा अमृत महोत्सव के चलते 75 चुने हुए खास प्रतिभाशाली प्रतियोगी। अब देखना यह है कि अगले साल इनमें से कितने अपने किसी नये project से 53वें इफ़्फ़ी का हिस्सा बनेंगे। 

सरकार को भी चाहिए किसी माध्यम से इनकी मदद की जा सके। एनएफडीसी या पीआईबी से यह लोग सीधे जुड़ पाये। हालाँकि यह सबसे कठिन है। साथ ही क्या अगले वर्ष नये 76 प्रतिभाशाली लोगो का चुनाव होगा । फ़िलहाल मन्त्री जी या पीआईबी ने इस विषय मे कुछ नही कहा है कह देते तो लोग अभी से तैयारी करते अधिक लोग शामिल होते चुनाव कठिन होता।


अंतिम दिन सुनकर अच्छा लगा जब सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा ने कहा फ़िल्म निर्माताओं को भारतीय संस्कृति और परम्पराओ पर फ़िल्म बनानी चाहिए एनएफडीसी और अन्य आर्थिक सहयोग ऐसी फिल्मों को उपलब्ध कराया जायेगा। इस पर मेरा कहना है कि मंत्री महोदय पिछले 7 साल की 7 इसलिए कि 7 साल से उनकी सरकार है फिल्मों की list एनएफडीसी से मंगा कर देख लीजिए तो आपको समझ आ जायेगा कि किस तरह की संस्कृति और परंपराओं को यह संस्थान बढ़ावा दे रही है। 

मन्त्री महोदय को यह भी याद दिलाना है कि एक संस्था चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी ऑफ इंडिया भी है उसकी भी खोज ख़बर लेते रहे। एनएफडीसी और बाल चित्र समिति की चर्चा फ़िल्म समारोह से कुछ पहले ही सुनने को मिलती है साल भर यह क्या करती है इसकी कोई खबर नही होती।

जापानी फ़िल्म ring wandering को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिये गोल्डन पिकॉक अवार्ड मिला इसमें 40 लाख रुपये मिलते है मेरे विचार से सभी धनराशि को आकर्षक बनाने की आवश्यकता है सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिये एक करोड़ रुपया मिलना चाहिये उसी प्रतिशत में सभी अवार्ड की धनराशि बढ़नी चाहिए अगले वर्ष से। 

किस को क्या मिला वो सब पढ़ चुके है मेरा कहना है इन फिल्मों को आम लोग कहाँ देख सकते है। जैसा मैंने पिछली बार भी लिखा एक पखवाड़े में दूरदर्शन पर इफ़्फ़ी फ़िल्म प्रदर्शित होनी चाहिए और उनका प्रचार प्रसार भी जोर शोर से होना चाहिए।

मंत्री जी ने कहा करीब सभी OTT Platforms ने इफ़्फ़ी में पहली बार सहभागिता दिखाई यह अच्छी बात है लेकिन किसी ने कोई आश्वासन दिया चुनी हुई या पुरुस्कार प्राप्त फिल्मों को हम अपना प्लेटफार्म देने को तैयार है वो हमसे संपर्क कर सकते है। यह तो निश्चित है चुनी और पुरुस्कृत फिल्में सर्वश्रेष्ठ होती है तो उन्हें ऐसा प्रस्ताव देने में संकोच नही होना चाहिए। पीआईबी को इस दिशा में कुछ करना चाहिए।

नवभारत टाइम्स के पूर्व फीचर संपादक और ज्यूरी सदस्य सुरेश शर्मा सहित कई लोगो की माँग कि वर्तचित्र और लघु फिल्मों के लिए कोई विशेष प्लेटफार्म होना चाहिए सरकार को ही इसमें पहल करनी चाहिए ऐसा मेरा मानना है वरना यूट्यूब तो जिन्दाबाद है ही मानसिक संतुष्टि के लिए। आज नही तो कल पैसे मिलने की भी उम्मीद होती ही है।

मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत ने फिर से अपनी माँग दोहराई फ़िल्म सिटी बनाने की। लेकिन मेरा मानना है यह इतना आसान नही है गोआ में। देश विदेश के सबसे आकर्षक पर्यटन स्थल पर सबसे बड़ी दो समस्याएं है पहली टैक्सी दूसरी मोबाईल नेटवर्क जिस पर्यटन स्थल पर आज की सबसे जरूरी चीजें सरकार उपलब्ध नही करा पा रही है उस प्रदेश में फ़िल्म सिटी ? वैसे भी गोआ के लोगो को समझाना आसान नही है फ़िल्म सिटी के लिए गोआ में कम से कम 300 एकड़ जगह तो चाहिए होगी। यानि असम्भव।

खैर इफ़्फ़ी की बात कर लेते है एक दिन देखा एक स्टॉल में ईवीएम मशीन रखी है पता चला इफ़्फ़ी का लाभ उठाते हुए 2022 के गोआ विधानसभा चुनाव की जागरूकता को ही अन्जाम दे ले। लोगो ने दिलचस्पी भी ली ।

पिछली बार जब मैं इफ़्फ़ी गया था तब एक दो स्टॉल गोआ के परंपरागत सामान के भी लगे थे उन सामानों को गोआ के स्थानीय कलाकार बनाते थे। इस बार वो नही थे उस स्टॉल के होने का फायदा यह था कि इफ़्फ़ी में आये लोगो को गोआ की याद में कुछ लेना हो तो आसानी होती थी और स्थानीय कलाकारों को आमदनी का जरिया मिलता था। 

इस बार किंग फिशर का स्टॉल नही था दूसरी बाटली का था। अब किंग ही नही तो यह तो होना ही था लेकिन किंग फिशर बाजार में उपलब्ध है और Heineken ने किंगफिशर को अपने सानिध्य में ले लिया है।

इतिहास को छुपाया नही जा सकता उसी कड़ी में बंगाल में एक ही रात में 15000 लोगो का कत्लेआम कर दिया गया sainbari डॉक्यूफीचर, इसी सच को ईमानदारी से दिखाया गया है । इस पैनोरमा खंड की महत्वपूर्ण फ़िल्म को अधिक दर्शक वर्ग मिले इसकी जवाबदारी पीआईबी की होनी चाहिए।


वैश्विक महामारी lockdown के समय को भी फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों का हिस्सा बनाया है।हिन्दी फीचर अल्फा बीटा गामा ऐसी ही एक फ़िल्म है 1 करोड़ से भी कम लागत की फ़िल्म को कोविड समय में एक फ्लैट में फंस गये पति पत्नि और वो की कहानी है पति पत्नी अलग होने वाले है वो से पत्नी शादी करने वाली है और तीनों एक फ्लैट में 14 दिन फंस जाते है। अर्जेंटीना की फ़िल्म Unbalanced,अनंत महादेवन की लघु फ़िल्म The Knocker उसी श्रृंखला की फ़िल्म है।

आमतौर पर डरावनी फिल्में किसी फिल्म समारोह का हिस्सा नही होती है ऐसी फिल्मों के लिये अलग से बहुत से अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोह होते है लेकिन इफ़्फ़ी में नुशरत भरउच्चा की फ़िल्म छोरी प्रभाव छोड़ती है।

इफ़्फ़ी में शाम ढले पांच संगीतकारों का बैंड कोंकणी पुर्तगाली और हिन्दी फिल्मों के गीत संगीत से स्वरलहरियों से सबका स्वागत करते है। उपस्थित जन भी भरपूर सम्मान देते फ़ोटो खिंचाते। इस बैंड का अलग ही आकर्षण रहा।

2 दिन बाद इफ़्फ़ी में फिल्मी दर्शकों की संख्या इतनी बढ़ गई कि आयोजकों को 50% की जिद छोड़नी पड़ी और शत प्रतिशत टिकट देने पड़े करीब सभी फिल्में हाउस फूल रही। किसी समारोह की सफलता का पता इसी से चलता है । लेकिन मास्टर क्लास के लिए यह व्यवस्था क्यों नही की गई समझ से परे है।

खेल फिल्मों को भी इफ़्फ़ी में बहुत पसन्द किया गया। इस कड़ी में चार फिल्में दिखाई गई। यह फिल्में थी Rookie, कोरिया की fighter, तीसरी फिल्म थी The Champion of Auschwitz सच्ची घटना पर आधारित है नाज़ी कैम्प में फंसे मुक्केबाज टेडी की कहानी है अद्भुत।

पूरे इफ़्फ़ी समारोह के दो मुख्य आकर्षण रहे पहला इफ़्फ़ी प्रांगण के बाहर वाली करीब पूरी सड़क में बहुत से स्टॉल लगाये गए इसकी खूबसूरती अंधेरा होने के बाद ही दिखती थी। बिजली की रोशनी की शानदार सजावट पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण रही।

दूसरा आकर्षण थी दक्षिण भारत की सुपरस्टार सामंथा, फैमली मेन द्वितीय के बाद हिन्दी दर्शक भी उन्हें न सिर्फ पहचानने लगे है बल्कि उनके अभिनय को भी पसन्द किया। लेकिन इफ़्फ़ी में आकर्षण थी उनकी लाल चटक साड़ी और उनकी खूबसूरती। सबसे अधिक भीड़ भी उन्हें ही देखने के लिये लालायित थी।

पहली बार इफ़्फ़ी में एक गढ़वाली फ़िल्म सुनपत दिखाई गई 35 मिनट की इस फ़िल्म के निर्देशक राहुल रावत और निर्माता रोहित रावत इफ़्फ़ी में थे। राहुल ने बताया उत्तराखंड के 1500 से अधिक गाँवो से इतना अधिक पलायन हुआ कि यह सभी गाँव भुतहा लगते है।

यह समस्या आज की नही है मैं जब 1989/90 में पिथौरागढ़ में रहता था उस समय मैं दूरदराज के गांवों में बतौर पत्रकार गया था। कई गाँव तो ऐसे देखे जिसमें एक भी इंसान नही था। जो लोग उत्तराखंड छोड़कर चले गये वो वापस नही आते । जो विदेशों में बस गये वो तो फिर भी पाँच सात साल में एक बार आ जाते है लेकिन देश के विभिन्न नगरों में स्थापित हो चुके लोग अधिक व्यस्त है। सिवाय अभिनेता हेमन्त पाण्डेय के जो हर वर्ष ही चार बार पिथौरागढ़ हो आते है।

सुनपत फ़िल्म सबको देखनी चाहिए। शायद पलायन कर चुके लोग कभी कभार घूमने ही आ जाये।

अगले साल फिर मिलेंगे इफ़्फ़ी की कहानियों के साथ।

हरीश शर्मा